दुनिया बुरी हो रही है या फिर हम जल्दी 'आहत' हो रहे हैं
इसमें कोई शक नहीं कि अपने आसपास की दुनिया को लेकर अविश्वास बढ़ता जा रहा है. लेकिन एक दूसरा पक्ष है जो ये मानता है कि हम वहां पर भी समस्याओं को ढूंढ रहे हैं जहां वो नहीं हैं. क्या हमारी नज़रें आलोचक की नज़रें हो गई हैं जो हर बात में नुक्स निकाल रही है.
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